Tuesday, July 20, 2010

लोक कलाओं की मुश्किल


घर की दीवारों को खूबसूरत बनाने और कानों के रास्ते मन को आनंदित करने वाली लोक कलाएं मुश्किल में हैं. दिन में रॉकिंग म्यूजिक बेशक अच्छा लगे लेकिन सुबह की शुरुआत मन सुहाने वाले गीतों से नहीं हो पाया करेगी. ताजापन ख़त्म हो जाएगा. घर सजेगा जरूर लेकिन इमैजिन कीजिए, अपने देश की माटी से जुड़ी कलाएं नहीं होंगी तो क्या लुक आंखों को अच्छा लग पाएगा. हैसियत के मुताबिक मिल जाने वालीं लोक कलाओं के बिना हम कैसा फील करेंगे? जानते होंगे कि जो हमारे पास है, वो लोक कला असली नहीं तो कैसी फीलिंग होगी. सचमुच यही सिचुएशन आने वाली है.
बॉलीवुड एक्टर आमिर खान की 'पीपली लाइव' के लोकगीत 'महंगाई डायन खात जात है' से चर्चा में आए देश की पहचान से जुड़े लोक गीतों पर खतरा मंडरा रहा है. लोक कलाओं का ही एक रूप है लोक गीत. ये गीत तो फिल्मों में पहले भी चोरी हुए हैं. बॉलीवुड में एक समय ऐसा भी था जब अधिकांश फिल्मों में एक न एक लोक गीत को जरूर शामिल किया जाता था. इन लोक गीतों में शास्त्रीय रागाधार, स्वर, ताल और लय मूलक सौन्दर्य था इसलिए फिल्मों में जगह मिली. लोग इन्हें सुनना पसंद करते हैं. 'पान खाय सैंया हमारो' और 'चलत मुसाफिर मोह लियो रे' हो या पिछले दिनों आई 'दिल्ली-6' का 'ससुराल गेंदा फूल', लोक गीत ही तो है. महज 1100 रुपये मिलने से नाराज रायसेन (एमपी) के टीचर गया प्रसाद प्रजापति अगर मुंबई जाकर आमिर से छह लाख का पेमेंट ले आते हैं तो इसलिये कि कंट्रोवर्सी आमिर का नाम जुड़ा होने से शुरू हुई वर्ना कोई नहीं पूछता उन्हें. लोक कलाकारों की बेहद खराब हालत है. अपना मूल काम वो छोड़ नहीं रहे बल्कि लोगों की उपेक्षा उन्हें छोड़ने को मजबूर कर रही है. बनारस के पास एक लोक कलाकार महज कुछ प्रतिशत कमीशन पाने के लिए भगवान बुद्ध की तीन करोड़ की प्राचीन मूर्ति चुराने वालों का साथ देने के लिए तैयार हो जाता है कि कुछ दिन ही सही पेट तो भरेगा. ये कलाकार बिरहा गाता है.
एक आदमी उसके संपर्क में आता है. कुछ गांवों में बिरहा गाकर पैसे कमाने में मदद करता है और फिर चोरी में शामिल कर लेता है. कलाकार नहीं जानता कि मूर्ति चोरी की है. हो सकता है कि वह बचने के लिए झूठ बोल रहा हो लेकिन ऐसे हालात आए क्यों? बेशक, गरीबी ने इसके लिए मजबूर किया. यूजीसी के अपने प्रोजेक्ट के सिलसिले में गई तो मैंने देखा कि अवध हो या ब्रज या फिर भोजपुरी बेल्ट, सभी जगह लोक कलाकार सिसक रहे हैं. लखनऊ से सीतापुर तक जमकर बनने वाली आर्टिस्टक बकेट्स देशभर में जानी-पहचानी जाती थीं पर इनके कलाकार ढूंढने पर मिलते हैं. कुछ तो कला से पलायन करके अन्य काम कर रहे हैं. इसी तरह ब्रज रीजन में कभी फेमस रहीं वुड आर्ट नजर नहीं आती. राजस्थान बार्डर से जुड़े एरिया में यह पहले खूब बनती थीं. यह कलाकार अब लकड़ी की मालाएं बना रहे हैं. पता चला कि अवध, ब्रज या रुहेलखंड में तमाम जगह अब फेस्टिवल्स या खुशी के अन्य मौके पर दीवारों पर कोहबर आदि चित्रण नहीं होता. लोग खुद बनाकर फॉर्मेलिटी पूरी कर लेते हैं, जो पहले किसी आर्टिस्ट को बुलाते थे. बरेली की एक कॉलोनी में एक गैलरी है, जहां लोक कलाएं बिकती हैं लेकिन इन्हें लोक कलाकार नहीं बनाते बल्कि ठेके पर बनवा ली जाती हैं.
दिल्ली-मुंबई में तो यह काम बड़े पैमाने पर होता है. कुछ लोग तो महज इसी की फैक्टरीज़ चलाकर करोड़ों कमा रहे हैं जहां जरूरतमंद आर्टिस्ट सैलरी पर काम करते हैं. यह सच है कि इन्हें जॉब मिला है लेकिन भीतर का कलाकार मारकर. कलाकार अपने मूड से कला रचता है पर यहां आर्डर पर काम करना होता है. लखनऊ, आगरा, बनारस, इलाहाबाद, पटना हो या फिर देहरादून, सभी जगह टूरिस्ट्स की भीड़ लगती है लेकिन कलाओं की मार्केटिंग असली कलाकारों के हाथ में नहीं. टूरिस्ट जो खरीद रहा है, वो या तो नकली है या किसी कलाकार ने अपनी आत्मा मारकर किसी फैक्टरी में बनाया है. एक अन्य प्रोजेक्ट के निष्कर्ष बताते हैं कि लोक कलाओं के लिए सबसे ज्यादा फेमस राजस्थान में भी यही हाल है. वहां छोटी-बड़ी और बेहद डेकोरेटिव आइटम्स आम तौर पर यह कलाकार नहीं, फैक्टरीज़ बना रही हैं. पहले यही लोग बनाते थे. हालांकि प्रॉब्लम सॉल्व करने की कुछ पहल हुई है. यूपी के अलग-अलग शहरों के कुछ कलाकार लोक कलाओं की सीधी मार्केटिंग करने की कोशिश कर रहे हैं. दुआ है कि इसका नतीजा निकले, और कलाकार भी प्रयास करें और सफल हों वरना देश की एक और असली पहचान लुप्त हो जाएगी.

1 comment:

संगीता पुरी said...

कलाकारों के अंदर जो दिल बसता है .. वह आज के सामान्‍य जन के पास नहीं हो सकता .. पेट पालने की मजबूरी में उसकी स्‍वतंत्रता को समाप्‍त करना हमारी व्‍यवस्‍था की खामी है !!